ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना: रणनीति बनाम सतत विकास की चुनौती
भारत की समुद्री सुरक्षा को मजबूती देने वाला एक महत्वाकांक्षी कदम, लेकिन पर्यावरण, जैव विविधता और आदिवासी अधिकारों पर उठते सवाल भी उतने ही गंभीर हैं।
भारत सरकार ने रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रेट निकोबार द्वीप पर ₹80,000 करोड़ की एक मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना को मंज़ूरी दी है। यह परियोजना न केवल देश की समुद्री सुरक्षा और व्यापारिक क्षमताओं को नई दिशा देने की कोशिश है, बल्कि यह 'होलिस्टिक डेवलपमेंट ऑफ आइलैंड्स' कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह को पर्यटन, व्यापार और रणनीतिक केंद्र के रूप में विकसित करना है।
रणनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण
ग्रेट निकोबार का भू-स्थानिक महत्व इसकी निकटता के कारण है मलक्का जलडमरूमध्य से, जो विश्व की सबसे व्यस्त समुद्री व्यापारिक मार्गों में से एक है। इस क्षेत्र में पहले से ही भारतीय नौसेना का एयरबेस 'INS बाज़' मौजूद है, जो पूर्वी हिंद महासागर में निगरानी और त्वरित कार्रवाई में सहायक है।
इस परियोजना के अंतर्गत गैलेथिया बे में एक बड़ा ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, एक ग्रीनफील्ड इंटरनेशनल एयरपोर्ट, एक आधुनिक टाउनशिप, पर्यावरणीय पर्यटन सुविधाएं, और गैस-आधारित बिजली संयंत्र की योजना है। यह पोर्ट भारत को कोलंबो, सिंगापुर और क्लैंग जैसे अंतरराष्ट्रीय पोर्ट्स पर निर्भरता से मुक्त कर सकता है और 2028 तक प्रति वर्ष 14 मिलियन TEU कंटेनरों की क्षमता संभालने की योजना है।
पर्यटन और कनेक्टिविटी
अत्यंत सुंदर तटीय रेखा, साफ-सुथरे समुद्रतट, और समृद्ध वन्य जीवन ग्रेट निकोबार को एक प्रमुख इको-टूरिज्म केंद्र बनने की क्षमता प्रदान करते हैं। वर्तमान में द्वीप की सीमित पहुंच और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण पर्यटन सीमित है, जिसे यह परियोजना दूर कर सकती है।
पारिस्थितिकीय और जैवविविधता की गंभीर चिंता
ग्रेट निकोबार लगभग 1.04 लाख हेक्टेयर में फैला हुआ है, जिसमें विश्व की सबसे दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं—जैसे निकोबार मेगापोड, ट्री श्रू, चमकदार वृक्ष मेंढक और भारत में पाए जाने वाले सबसे बड़े चमड़े की पीठ वाले समुद्री कछुए। यहाँ की जैव विविधता इसे 'सुंदालैंड बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट' बनाती है—भारत में ऐसा दर्जा प्राप्त एकमात्र द्वीपसमूह।
यह क्षेत्र प्रवाल भित्तियों, मैन्ग्रोव वनों, और कई प्रवासी पक्षियों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। गैलेथिया नदी समुद्री कछुओं के लिए प्रजनन स्थल है, और आस-पास का समुद्री क्षेत्र 'कोरल ट्रायंगल' का हिस्सा है, जिसमें दुनिया के 75% से अधिक प्रवाल प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
आदिवासी समुदायों के अधिकार और अस्तित्व पर संकट
शोम्पेन और निकोबारी समुदाय, जिनकी आबादी कुछ सौ में सिमटी हुई है, इस द्वीप के सबसे पुराने निवासी हैं। वे जंगलों और समुद्री संसाधनों पर निर्भर शिकारी-एकत्रकर्ता हैं। शोम्पेन को भारत के 'विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह' (PVTG) के रूप में चिह्नित किया गया है। इनके सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बाहरी हस्तक्षेप का अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
जनजातीय अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि जिस तरह इस परियोजना के तहत 650,000 नए निवासियों के बसने की योजना है, वह इन समुदायों के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है। इनके लिए बाहरी बीमारियों का खतरा भी घातक सिद्ध हो सकता है।
पर्यावरणीय प्रभाव और बहस
हालांकि 2022 में दी गई पर्यावरणीय मंजूरी में कुछ शमन उपाय शामिल हैं—जैसे चमड़े की पीठ वाले कछुए के लिए संरक्षित क्षेत्र बनाना और पुनः वनरोपण—परंतु विशेषज्ञों का मानना है कि यह उपाय परियोजना के दीर्घकालिक पारिस्थितिकीय प्रभावों को संतुलित नहीं कर सकते। उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई से 4.3 मिलियन टन CO₂ का उत्सर्जन और मृदा क्षरण का खतरा उत्पन्न होगा। वहीं, प्रवाल भित्तियों का पुनःस्थापन व्यावहारिक रूप से अत्यंत कठिन और सीमित सफलता वाला है।
निष्कर्ष: संतुलन की आवश्यकता
ग्रेट निकोबार परियोजना भारत के सामरिक और आर्थिक हितों के लिए निःसंदेह एक युगांतरकारी कदम हो सकती है, लेकिन यह केवल तब सफल मानी जाएगी जब यह पारिस्थितिकी, जैवविविधता और मूल निवासियों के अधिकारों को समान महत्व दे।
विकास की गति को स्थायित्व की दिशा में मोड़ना होगा—ऐसे नीतिगत फैसलों के साथ, जो पारदर्शिता, समुदाय की भागीदारी, और प्रकृति के अधिकारों का सच्चा सम्मान सुनिश्चित करें। ग्रेट निकोबार की नियति केवल एक भूखंड की नहीं, बल्कि यह इस बात की कसौटी है कि क्या भारत विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बना सकता है।

